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हरतालिका तीज व्रत कथा pdf free download

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style="background-color: white;">हरतालिका व्रत पूजन-विधान 

हरतालिका व्रत पूजन-विधान

सौभाग्यवती स्त्री को चाहिए कि वह प्रातःकाल स्नान आदि नित्य क्रिया

से शुद्ध होकर आसन पर पूर्व मुख बैठे, बायें हाथ में जल लेकर दाहिने

हाथ से

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सविस्थां गतोऽपि वा।

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥

यह मन्त्र पढ़कर अपने शरीर पर जल छिड़कें। पुनः दाहिने हाथ में

जल लेकर हरितालिका व्रत का मानसिक संकल्प करते हुए उमा-

महेश्वर के पूजन का संकल्प कर, जल भूमि पर छोड़ दें।

तदनन्तर गणेशजी का विधि पूर्वक पूजन कर हाथ में विल्वपत्र लें,

पीतवस्त्र धारण की हुई, सुवर्ण के सदृश कान्तिवाली, कमल के आसन

पर बैठी हुई, भक्तों को अभीष्ट वर देने वाली पार्वती का मैं नित्य

चिन्तन करती हूँ। इसी प्रकार मदार की माला केश में धारण की हुई,

दिव्य वस्त्र से विभूषित ऐसी पार्वती तथा मुण्डमाला धारण किये हुए

दिगम्बर, ऐसे शिव का चिन्तन करती हुई उमा-महेश्वर की मूर्ति पर

विल्वपत्र चढ़ावें।

तत्पश्चात् हाथ में अक्षत लेकर, उमा-महेश्वर का आवाहन पूर्वक आसन
प्रदान कर पाद्य, अर्घ्य, आचमन, पञ्चामृत स्नान, शुद्धोदक स्नान
कराकर वस्त्र, यज्ञोपवीत, पार्वती को कंचुकी धारण करावें । पुनः गंध,
अक्षत, सौभाग्य द्रव्य, सुगन्धित पुष्प चढ़ाकर हाथ में पुष्प, अक्षत
लेकर पार्वती के प्रत्येक अंग पर चढ़ावे। उसके बाद धूप, दीप, नैवेद्य,
फल, पान, सोपारी, दक्षिणा चढ़ाकर कपूर की आरती तथा हाथ फूल
लेकर पुष्पांजलि उमा-महेश्वर के चरणों में समर्पित करें।
पश्चात उमा-महेश्वर की मूर्ति की हाथ से प्रदक्षिणा कर नमस्कारपूर्वक,
हे देवि! आप मुझे पुत्र, धन, सौभाग्य तथा मेरे सभी मनोरथों को पूर्ण
करें। इस प्रकार कहकर उमा-महेश्वर से प्रार्थना करे। तदनन्तर हाथ में
जल लेकर
'अन्नं सुवर्णपात्रस्थं स वस्त्र-फल-दक्षिणाम् ।
वायनं गौरि ! विप्राय ददामि तव प्रीतये ॥१॥
सौभाग्या-ऽऽरोग्य-कामाय सर्वसम्पत्समृद्धये।
गौरी-गिरीश-तुष्ट्यर्थ वायनं च ददाम्यहम् ॥२॥
इन श्लोकों को पढ़ संकल्पपूर्वक सौभाग्यवायन (सोहाग-पिटारी)
ब्राह्मण को दे। उसके बाद हरितालिका व्रत की कथा ब्राह्मण द्वारा
अथवा अन्य किसी के द्वारा श्रवण करे। या स्वयं पढ़े।
ॐ  ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ  ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ  ॐ ॐ ॐ ॐॐ  ॐ ॐ ॐ ॐ

हरतालिका तीज व्रत कथा

हरतालिका तीज (तीजों) की कथा

जिनके दिव्य केशों पर मन्दार (आक) के पुष्पों की माला शोभा देती है

और जिन भगवान शंकर के मस्तक पर चन्द्र और कण्ठ में मुण्डों की माला

पड़ी हुई है, जो माता पार्वती दिव्य वस्त्रों से तथा भगवान शंकर दिगम्बर वेष

धारण किये हैं, उन दोनों भवानी-शंकर को नमस्कार करता हूँ।

कैलाश पर्वत के सुन्दर शिखर पर माता पार्वती जी ने श्री महादेव जी

से पूछा-

हे महेश्वर! मुझ से आप वह गुप्त से गुप्त वार्ता कहिये जो सबके

लिए सब धर्मों से भी सरल तथा महान फल देने वाली हो। हे नाथ! यदि

आप भली-भाँति प्रसन्न हैं तो आप उसे मेरे सम्मुख प्रकट कीजिये। हे जगत

नाथ! आप आदि, मध्य और अन्त रहित हैं, आपकी माया का कोई पार

नहीं है। आपको मैंने किस भाँति प्राप्त किया है? कौन से व्रत, तप या दान

के पुण्य फल से आप मुझको वर रूप में मिले?

श्री महादेव जी बोले-हे देवी! यह सुन,मैं तेरे सम्मुख उस व्रत को कहता

हूँ, जो परम गुप्त है, जैसे तारागणों में चन्द्रमा और ग्रहों में सूर्य, वर्गों में

ब्राह्मण, देवताओं में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में साम और इन्द्रियों में

मन श्रेष्ठ है। वैसे ही पुराण और वेद सबमें इसका वर्णन आया है। जिसके

प्रभाव से तुमको मेरा आधा आसन प्राप्त हुआ है। हे प्रिये! उसी का मैं तुमसे

वर्णन करता हूँ, सुनो-भाद्रपद ( भादों) मास के शुक्लपक्ष की हस्त नक्षत्र

संयुक्त तृतीया (तीज) के दिन इस व्रत का अनुष्ठान मात्र करने से सब पापों

का नाश हो जाता है। तुमने पहले हिमालय पर्वत पर इसी महान व्रत को किया

था, जो मैं तुम्हें सुनाता हूँ। पार्वती जी बोलीं- हे प्रभुइस व्रत को मैंने किसलिए

किया था, यह मुझे सुनने की इच्छा है सो, कृपा करके कहिये।

शंकर जी बोले-आर्यावर्त में हिमालय नामक एक महान पर्वत है, जहाँ

अनेक प्रकार की भूमि अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित है, जो सदैव बर्फ

से ढके हुए तथा गंगा की कल-कल ध्वनि से शब्दायमान रहता है। हे पार्वती

जी! तुमने बाल्यकाल में उसी स्थान पर परम तप किया था और बारह वर्ष तक

के महीने में जल में रहकर तथा बैशाख मास में अग्नि में प्रवेश करके तप किया।

श्रावण के महीने में बाहर खुले में निवास कर अन्न त्याग कर तप करती रहीं।

तुम्हारे उस कष्ट को देखकर तुम्हारे पिता को बड़ी चिन्ता हुई। वे चिन्तातुर

होकर सोचने लगे कि मैं इस कन्या की किससे शादी करूँ? इस अवसर पर

दैवयोग से ब्रह्मा जी के पुत्र नारद जी वहाँ आये। देवर्षि नारद ने तुम शैलपुत्री

को देखा।तुम्हारे पिता हिमालय ने देवर्षि को अर्घ्य, पाद्य, आसन देकर सम्मान

सहित बिठाया और कहा-हे मुनीश्वर! आपने यहाँ तक आने का कष्ट कैसे

किया, कहिये क्या आज्ञा है? नारद जी बोले-हे गिरिराज! मैं विष्णु भगवान

का भेजा हुआ यहाँ आया हूँ। तुम मेरी बात सुनो।आप अपनी कन्या को उत्तम

वर को दान करें। ब्रह्मा, इन्द्र, शिव आदि देवताओं में विष्णु भगवान के समान

कोई भी उत्तम नहीं है। इसलिए मेरे मत से आप अपनी कन्या का दान भगवान

विष्णु को ही दें।हिमालय बोले-यदि भगवान वासुदेव स्वयं ही कन्या को ग्रहण

करना चाहते हैं और इस कार्य के लिए ही आपका आगमन हुआ है तो वह मेरे

लिए गौरव की बात है। मैं अवश्य उन्हें ही दूंगा। हिमालय का यह आश्वासन

सुनते ही देवर्षि नारद जी आकाश में अन्तर्धान हो गये और शंख, चक्र, गदा,

पद्म एवं पीताम्बरधारी भगवान विष्णु के पास पहुंचे।

नारद जी ने हाथ जोड़कर भगवान विष्णु से कहा-प्रभु! आपका विवाह

कार्य निश्चित हो गया । इधर हिमालय ने पार्वती जी से प्रसन्नता पूर्वक

कहा-हे पुत्री मैंने तुमको गरुड़ध्वज भगवान विष्णु को अर्पण कर दिया है।

पिता के इन वाक्यों को सुनते ही पार्वती जी अपनी सहेली के घर गईं और

पृथ्वी पर गिरकर अत्यन्त दुखित होकर विलाप करने लगीं।

उनको विलाप करते हुए देखकर सखी बोली-हे देवी! तुम किस कारण से

दुःख पाती हो, मुझे बताओ। मैं अवश्य ही तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगी। पार्वती

बोली-हे सखी! सुन, मेरी जो मन की अभिलाषा है, सुनाती हूँ। मैं श्री महादेव

जी को वरण करना चाहती हूँ, मेरे इस कार्य को पिताजी ने बिगाड़ना चाहा है।

इसलिये मैं निःसन्देह इस शरीर का त्याग करूँगी। पार्वती के इन वचनों को

सुनकर सखी ने कहा-हे देवी! जिस वन को तुम्हारे पिताजी ने न देखा हो तुम

वहाँ चली जाओ।तबहे देवी पार्वती! तुम अपनी सखी का यह वचन सुन ऐसे ही

वन को चली गईं। पिता हिमालय ने तुमको घर पर न पाकर सोचा कि मेरी

पुत्री को कोई देव, दानव अथवा किन्नर हरण करके ले गया है। मैंने नारद

जी को वचन दिया था कि मैं पुत्री का गरुड़ध्वज भगवान के साथ वरण

करूँगा। हाय, अब यह कैसे पूरा होगा? ऐसा सोचकर वे बहुत चिंतातुर हो

मूर्छित हो गये। तब सब लोग हाहाकार करते हुए दौड़े और मूर्छा दूर होने पर

गिरिराज से बोले कि हमें आप अपनी मूर्छा का कारण बताओ। हिमालय

बोले-मेरे दुःख का कारण यह है कि मेरी रत्नरूपी कन्या को कोई हरण कर

ले गया या सर्प डस गया या किसी सिंह या व्याघ्र ने मार डाला है। वह ने जाने

कहाँ चली गई या उसे किसी राक्षस ने मार डाला है।

इस प्रकार कहकर गिरिराज दुःखित होकर ऐसे कांपने लगे जैसे तीव्र

वायु के चलने पर कोई वृक्ष कांपता है। तत्पश्चात हे पार्वती, तुम्हें गिरिराज

साथियों सहित घने जंगल में ढूंढने निकले। सिंह, व्याघ्र, रीछ आदि हिंसक

जन्तुओं के कारण वन महाभयानक प्रतीत होता था। तुम भी सखी के साथ

भयानक जंगल में घूमती हुई वन में एक नदी के तट पर एक गुफा में पहुंची।

उस गुफा में तुम आनी सखी के साथ प्रवेश कर गईं। जहाँ तुम अन्न जल का

त्याग करके बालू का लिंग बनाकर मेरी आराधना करती रहीं। उस समय पर

भाद्रपद मास की हस्त नक्षत्र युक्त तृतीया के दिन तुमने मेरा विधि विधान से

पूजन किया तथा रात्रि को गीत गायन करते हुए जागरण किया। तुम्हारे उस

महाव्रत के प्रभाव मेरा आसन डोलने लगा। मैं उसी स्थान पर आ गया;

जहाँ तुम और तुम्हारी सखी दोनों थीं। मैंने आकर तुमसे कहा हे वरानने, मैं

तुमसे प्रसन्न हूँ, तू मुझसे वरदान मांग। तब तुमने कहा कि हे देव, यदि आप

मुझसे प्रसन्न हैं तो आप महादेव जी ही मेरे पति हो। मैं तथास्तु' ऐसा कहकर
कैलाश पर्वत को चला गया और तुमने प्रभात होते ही मेरी उस बालू की
प्रतिमा को नदी में विसर्जित कर दिया। हे शुभे, तुमने वहाँ अपनी सखी सहित
व्रत का पारायण किया। इतने में तुम्हारे पिता हिमवान भी तुम्हें ढूंढते ढूंढते
उसी घने वन में आ पहुँचे। उस समय उन्होंने नदी के तट पर दो कन्याओं को
देखा तो ये तुम्हारे पास आ गये और तुम्हें हृदय से लगाकर रोने लगे। और
बोले-बेटी तुम इस सिंह व्याघ्रादि युक्त घने जंगल में क्यों चली आईं? तुमने
कहा हे पिता, मैंने पहले ही अपना शरीर शंकर जी को समर्पित कर दिया था,
किन्तु आपने इसके विपरीत कार्य किया। इसलिए मैं वन में चली आई। ऐसा
सुनकर हिमवान ने तुमसे कहा कि मैं तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध यह कार्य नहीं
करूँगा। तब वे तुम्हें लेकर घर को आये और तुम्हारा विवाह मेरे साथ कर
दिया। हे प्रिये! उसी व्रत के प्रभाव से तुमको मेरा अर्द्धासन प्राप्त हुआ है। इस
व्रतराज को मैंने अभी तक किसी के सम्मुख वर्णन नहीं किया है।
हे देवी! अब मैं तुम्हें यह बताता हूँ कि इस व्रत का यह नाम क्यों पड़ा?
तुमको सखी हरण करके ले गई थी, इसलिए हरतालिका नाम पड़ा। पार्वती
जी बोलीं-हे स्वामी! आपने इस व्रतराज का नाम तो बता दिया किन्तु मुझे
इसकी विधि एवं फल भी बताइये कि इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती
है। तब भगवान शंकर जी बोले-इस
स्त्री जाति के अत्युत्तम व्रत की विधि
सुनिये। सौभाग्य की इच्छा रखने वाली स्त्रियां इस व्रत को विधि पूर्वक करें।
केले के खम्भों से मण्डप बनाकर उसे वन्दनवारों से सुशोभित करें। उसमें
विविध रंगों के उत्तम रेशमी वस्त्र की चाँदनी ऊपर तान दें। चन्दन आदि
सुगन्धित द्रव्यों का लेपन करके स्त्रियां एकत्र हों। शंख, भेरी, मृदंग आदि
बजावें। विधिपूर्वक मंगलाचार करके श्री गौरी-शंकर की बालू निर्मित प्रतिमा
स्थापित करें। फिर भगवान शिव पार्वती जी का गन्ध, धूप, पुष्प आदि से
विधिपूर्वक पूजन करें।अनेकों नैवेद्यों का भोग लगावें और रात्रि को जागरण
करें। नारियल, सुपारी, जंवारी, नींबू, लौंग, अनार, नारंगी आदि ऋतुफलों
तथा फूलों को एकत्रित करके धूप, दीप आदि से पूजन करके कहें-हे कल्याण
स्वरूप शिव! हे मंगलरूप शिव! हे मंगल रूप महेश्वरी! हे शिवे! सब
कामनाओं को देने वाली देवी कल्याण रूप तुम्हें नमस्कार है। कल्याण स्वरुप
माता पार्वती, हम तुम्हें नमस्कार करते हैं। भगवान शंकरजी को सदैव नमस्कार
करते हैं। हे ब्रह्म रुपिणी जगत का पालन करने वाली "मां"आपको नमस्कार
है। हे सिंहवाहिनी! मैं सांसारिक भय से व्याकुल हूँ, तुम मेरी रक्षा करो। हे
महेश्वरी! मैंने इसी अभिलाषा से आपका पूजन किया है।हे पार्वती माता आप
मेरे ऊपर प्रसन्न होकर मुझे सुख और सौभाग्य प्रदान कीजिए। इस प्रकार के
शब्दों द्वारा उमा सहित शंकर जी का पूजन करें। विधिपूर्वक कथा सुनकर गौ,
वस्त्र, आभूषण आदि ब्राह्मणों को दान करें। इस प्रकार से व्रत करने वाले के
सब पाप नष्ट हो जाते हैं!


व्रत विधान एवं माहात्म्य

पार्वतीजी ने कहा- हे प्रभो! आपने इस व्रत के नाम का निरूपण तो
कर दिया, अब इसके विधान तथा माहात्म्य का वर्णन भी कीजिए।
- इस व्रत को करने क्या फल होता है तथा इस व्रत को पहले
- किसने किया था, यह भी बतलाने की कृपा करे ?
शिवजी ने कहा- हे देवि! अब मैं तुमसे इस व्रत का विधान
बतलाता हूँ। सौभाग्य की कामना करने वाली सभी नारियों के लिए
यह व्रत करने योग्य है. क्योंकि यह व्रत स्त्रियों का सौभाग्यदायक
है। सर्वप्रथम केला के खम्भों से एक मंडप का निर्माण करें।
तदनन्तर उस मण्डप को विविध वर्गों के वस्त्रों से आच्छादित कर
उसमें सुगन्धित चन्दन का लेपन करें। फिर उसमें पार्वती सहित
मेरी बालू की मूर्ति बनाकर स्थापित करें और शंख, भेरी मृदंग आदि
* बाजों को बजाकर, विविध प्रकार के सुगन्धित पुष्पों एवं नैवेद्य
आदि चढ़ाकर मेरी करें। पूजन के बाद उस दिन रात्रि में जागरण
करें। ऋतु के सुपारी, जामुन, मुसम्मी, नारंगी आदि का भोग
ॐ अर्पित करें।
पूजा अनुसार नारियल,तत्पश्चात् पाँच मुख वाले, शान्तिस्वरूप एवं
त्रिशूलधारी शिव को मेरा नमस्कार है ऐसा कहकर नमन करें।
, नन्दी, भंगी, महाकाल आदि गणों से युक्त शिव को मेरा नमस्कार है तथा सृष्टिस्वरूपिणी प्रकृतिरूप शिव की कान्ता (पार्वती) को मेरा
नमस्कार है। हे सर्वमंगल-प्रदायिनी, जगन्मय शिवरूप
कल्याणदायिके! शिवरूपे शिवे! शिवस्वरूपा तेरे तथा शिवा के
= निमित्त एंव ब्रह्मचारिणी स्वरूप जगद्धात्री के लिए मेरा बार-बार
प्रणाम है। हे सिहंवाहिनी ! आप भव-ताप से मेरा त्राण करें। हे
माहेश्वरि! आप मेरी सम्पूर्ण इच्छाएँ पूर्ण करें।
.
. ॐ हरतालिका तीज व्रत कथा ॐ •

हे मातेश्वरि ! मुझे राज्य, सौभाग्य-सम्पत्ति प्रदान करें- इस प्रकार
कहकर मेरे साथ तुम्हारी पूजा स्त्रियों को करनी चाहिए। विधिवत्
कथा-श्रवण करने के पश्चात सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मण को अन्न,
वस्त्र एवं धन प्रदान करें। तदनन्तर भूयसी दक्षिणा देकर सम्भव हो
तो स्त्रियों को आभूषण आदि भी देवें। इस सौभाग्यवर्धिनी पुनीत
कथा को अपने पति के साथ श्रवण करने से नारियों को महान् फल
- की उपलब्धि होती है।

हे देवि! इस विधि से जो स्त्रियाँ व्रत को करती हैं, उन्हें सात
जन्मों तक राज्य-सुख एवं सौभाग्य प्राप्त होता है। व्रत के दिन जो
नारी अन्न का आहार ग्रहण करती है वह सात जन्म तक
सन्तानहीनता एवं विधवा होती है। जो स्त्री उपवास नहीं करती वह
दरिद्री, पुत्र-शोक से दुःखी एवं कर्कशा (झगड़ालू) होती है तथा
नरक-वास करके दुःख भोगती है। जो नारी इस व्रत के दिन भोजन

• करती है उसे शूकरी, दुग्धपान से सर्पिणी, जल का पान करने से
जोंक अथवा मछली, मिष्ठान भक्षण से चींटी आदि योनियों में जन्म
लेना पड़ता है।
.
ॐ हरतालिका तीज व्रत कथा ॐ
अनुष्ठान की समाप्ति पर नारियों को चाहिए कि वे चांदी, सोने, ताँबे
अथवा इन सभी के अभाव में बाँस की डलिया में वस्त्र, फल
पकवान आदि रखकर दक्षिणा के साथ ब्राह्मण को दान करे। अन्त
= में, दूसरे दिन व्रत का पारण करें।
जो नारियाँ इस विधि से व्रत का अनुष्ठान करती हैं, वे तुम्हारे समान
= अनुकूल पति को प्राप्त कर इस लोक में सभी सुखों का उपभोग
करती हुई अन्त में सायुज्य मुक्ति प्राप्त करती हैं। इस कथा के
श्रवण कर लेने से ही स्त्रियाँ हजारों अश्वमेघ यज्ञ एवं सैकड़ों
वाजपेय यज्ञ के करने का फल प्राप्त करती हैं। हे देवि! मैंने तुमसे
। इस सर्वोत्तम व्रत का कथन किया, जिसके करने से करोड़ों यज्ञ का
फल सहज ही प्राप्त होता है, अतः इस व्रत के फल का वर्णन
सर्वथा अकथनीय है।
|| इस प्रकार हरितालिका व्रत कथा समाप्त ||

हरितालिका-व्रतोद्यापन विधि

इस व्रत के उद्यापन करने वाली स्त्री को स्नान आदि नित्य क्रिया से
निवृत्त होकर नया वस्त्र धारण करना चाहिए। फिर पूर्व की ओर
मुँह करके आसन ग्रहण करें। दाहिने हाथ की अनामिका अँगुलि में
पैंती (पवित्री) पहनकर ब्राह्मणों द्वारा स्वस्ति वाचन करायें।
तत्पश्चात गणपति एवं कलश का पूजन करे। एक कलश पर चाँदी
की शिव की तथा दूसरे कलश पर सुवर्ण की गौरी की प्रतिमा
स्थापित करें। इसके बाद ब्राह्मण को दक्षिणा आदि देकर उनसे
आशीर्वाद ग्रहण करें।
दूसरे दिन प्रातः काल वेदी में अग्नि स्थापित कर एक सौ आठ बार
आहुति देवें। हवन की सामग्री में काला तिल, यव और घृत
सम्मिलित होना चाहिए। हवन के अन्त में, नारियल में घी भरकर
उसे लाल कपड़े से लपेटकर अग्निमें हवन कर दें।
.
पूर्णाहुति के पश्चात सोलह सौभाग्य पिटारी (बाँस की बनी हुई
डलिया) में पकवान भर कर दक्षिणा के साथ सोलह ब्राह्मणों को
दान करें। यदि सम्भव हो तो सभी ब्राह्मणों को एक-एक वस्त्र भी
प्रदान करें। गाय दे सकें तो ब्राह्मण को गोदान भी करें ।तदनन्तर
सोलहों ब्राह्मणों को भोजन कराकर, उन्हें ताम्बूल और दक्षिणा
देकर, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करें।

इसके बाद हाथ में अक्षत लेकर सभी स्थापित देवों पर अक्षत
छिड़कते हुए उनका विसर्जन करें। इन सभी कृत्यों के कर लेने के
बाद ही स्वयं अपने बन्धु-बान्धवों के साथ भोजन करना चाहिए।
॥ इति उद्यापन विधि सहित हरितालिका व्रत कथा समाप्त ॥

आरती पार्वती देवी माता  की

जय पार्वती माता जय पार्वती माता ब्रह्म सनातन देवी शुभ फल कदा दाता।
जय पार्वती माता जय पार्वती माता। अरिकुल पद्मा विनासनी जय सेवक त्राता
जग जीवन जगदम्बा हरिहर गुण गाता। जय पार्वती माता जय पार्वती माता।
सिंह को वाहन साजे कुंडल है साथा देव [ वधु जहं गावत नृत्य कर ताथा।
जय पार्वती माता जय पार्वती माता। सतयुग शील सुसुन्दर नाम सती कहलाता
हेमांचल घर जन्मी सखियन रंगराता। जय पार्वती माता जय पार्वती माता।
शुम्भ निशुम्भ विदारे हेमांचल स्याता सहस भुजा तनु धरिके चक्र लियो हाथा।
जय पार्वती माता जय पार्वती माता। सृष्टि रूप तुही जननी शिव संग रंगराता
नंदी भृगी बीन लाही सारा मदमाता। जय पार्वती माता जय पार्वती माता।
देवन अरज करत हम चित को लाता गावत दे दे ताली मन में रंगराता।
जय पार्वती माता जय पार्वती माता। श्री प्रताप आरती मैया की जो कोई गाता
सदा सुखी रहता सुख संपति पाता। जय पार्वती माता मैया जय पार्वती माता।

आरती  Shiv Shambhu Ji  की




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